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Showing posts from April 6, 2008
दिमागों से हटे अब ये धुंधलका , बहुत इसरार है यारो ग़ज़ल का ! कोई कैसे बचे परछाईयों से , हमारा आज है मोहताज कल का ! जरा ऊंचाईयों से देख लीजे , ये बौनापन भी राजा के महल का ! चलो हम तुम चलें ऐसी जगह अब , जहाँ पर खत्म हो अहसास पल का ! डॉ ब्रजेश शर्मा
ऐसा क्यूँकर लगता है , बिला वज़ह डर लगता है ! इश्क में आँखें छलकें तो , अश्क समंदर लगता है ! उलझन का तानाबाना , बस अपना घर लगता है ! उसने दर्द कुबूल लिए , मस्त कलंदर लगता है ! डॉ ब्रजेश शर्मा
ज़रूरतें जो हें दरपेश कल के बारे में , जनाब सोचिये रद्दोबदल के बारे में ! ये कैसे बुझ गई उसके जुनूं की चिंगारी , सहम के सोच रहा है पहल के बारे में ! मेरा ख़ुलूस ही आख़िर मुझे बचायेगा , मैं जानता हूँ तुम्हारे शगल के बारे में ! न जाने मुझमें वो क्या क्या तलाश करता है , जो पूछता है अधूरी ग़ज़ल के बारे में ! अगर दिमाग से सोचोगे हार जाओगे , तुम अपने दिल ही से पूछो ग़ज़ल के बारे में ! डॉ. ब्रजेश शर्मा
बड़ी मुश्किल है यारो ज़हनियत भी , नहीं मिल पाते अपने आप से भी , अजब ये दौर है सब खौफ में हैं , कली और फूल क्या पिस्तोल तक भी ! वो एक चेहरा जो मेरे ख्वाब में है , कभी आएगा आख़िर सामने भी ! चलोगे जब मोहब्बत के सफ़र पर , तुम्हें अपना लगेगा अजनबी भी ! हुनर अहसास पर हावी हुआ ग़र , तो फिर दम तोड़ देगी शायरी भी ! डॉ.ब्रजेश शर्मा
रोज़ चहरे बदलते हुये , जी रहे खुद को छलते हुये ! कितने जलते हुये प्रश्न हैं , भीगी आंखों में पलते हुये ! खो गए पांव अपने कहीँ , भीड़ के साथ चलते हुये ! डॉ .ब्रजेश शर्मा
पूछती एकांत में संवेदना , तर्क से कब हारती है भावना ! ऐक सिमटे वृत्त में जीते हुए , व्यर्थ है आकाश सी परिकल्पना ! प्रश्न चिन्हों से उलझती ज़िन्दगी , बुन रहे तुम स्वप्नदर्शी चेतना ! ज्वार - भाटों को उठाएगी जरूर , बूंद के विस्तार की संभावना ! डॉ .ब्रजेश शर्मा