पूछती एकांत में संवेदना ,
तर्क से कब हारती है भावना !
ऐक सिमटे वृत्त में जीते हुए ,
व्यर्थ है आकाश सी परिकल्पना !
प्रश्न चिन्हों से उलझती ज़िन्दगी ,
बुन रहे तुम स्वप्नदर्शी चेतना !
ज्वार - भाटों को उठाएगी जरूर ,
बूंद के विस्तार की संभावना !
डॉ .ब्रजेश शर्मा

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