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आज काफ़ी लंबे अरसे के बाद अपने ब्लॉग पर लौटा हूँ , और इसका श्रेय मेरे एक करीबी दोस्त को जाता है । आज जो संगीत रचनाएं उनसे मिलीं हैं वो मुझे सुरों की सुरीली दुनियां में ले गयी हैं । आबिदा परवीन की जादुई आवाज़ में एक बेहतरीन ग़ज़ल का आनंद लीजियेगा ...........
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ग़ज़ल

जो पाया है वो जीना चाहता हूँ , बहुत खामोश रहना चाहता हूँ ! तबर्रुक बाँट देना चाहता हूँ , ग़ज़ल के शेर कहना चाहता हूँ ! में अपनी रूह से होकर मुखातिब , अना के पार जाना चाहता हूँ ! हुई हैं चार आँखें ज़िन्दगी से , में अब हद से गुजरना चाहता हूँ ! फकीरी घुल रही है आशिकी में , करीने से संवरना चाहता हूँ ! डॉ॰ ब्रजेश शर्मा

ग़ज़ल

निगाहें हक़ में तो मासूम को ही माफ़ी है , सजा कबूल करो तुम अगर खता की है ! तमाम तोहमतें उसने हमारे सर कर दीं , हमारी सिम्त से ऐलाने जंग बाकी है ! कितना मुश्किल है तसव्वुर का तर्जुमा करना , बड़ा है काम मगर ज़िन्दगी जरा सी है ! चाँद को छूने की कोशिश हर एक लहर में है , हमें पता है समंदर की रूह प्यासी है ! ठहर भी जाओ मोहब्बत के इस जज़ीरे पर , कितनी हसरत से तुम्हे ज़िन्दगी बुलाती है ! डॉ॰ ब्रजेश शर्मा
हिन्दी कवि सम्मेलनों के प्रसिद्ध और लोकप्रिय कवि श्री सुरेन्द्र दुबे जी का आज फिर फ़ोन आया जयपुर से । मेरे मित्र हैं और उनका विकट आत्मीय आग्रह है की उनकी शीघ्र प्रकाश्य पत्रिका ,जो की "कवि सम्मेलन" के प्रति समर्पित है , के लिए लेख / कॉलम नियमित रूप से लिखूं । अब तो उनके आग्रह की टेलीफोनिक दस्तक इतनी नियमित हो गई है कि उसकी थाप सीधे दिल पर पड़ने लगी है । बकौल दुष्यंत कुमार जी .... " दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर , हर हथेली खून से तर और जियादा बेकरार !" और जब दिल के दरवाजे पर आकर कोई अपना मित्र आवाज दे तो भला कैसे और कितनी देर चुप रहा जा सकता है ? लेकिन मित्रवर अब मैं ये कैसे आपको समझाऊं कि " मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए '......... अब न तो कवि सम्मेलनों से वैसा सतत सम्पर्क रहा और न लेखन से । जिन्दगी आजकल जिस धारा में बह रही है उसमें कविता , कवि सम्मेलन , लेखन आदि सब नेपथ्य में चले गए हैं । " फुरसत ही नही इन हाथों को अब चाक गरेबां कौन करे " लेकिन बन्धुवर दुबे जी इन पंक्तियों को लिखते हुए ये प्रश्न जरूर उठ रहा है कि आख़िर ३०-
कहीं भी जायें मुसलसल ये जंग जारी है, ख़ुद अपने जिस्म पे अपनी ही रूह भारी है ! समेट लेता है नदियों के अश्क सीने में , इसीलिए तो समंदर की बूंद खारी है ! आपकी जेब में बस उसूल के सिक्के । बेटियों के दहेज़ की जबाबदारी है ! कशिश ग़ज़ल में जो उभरी है उसका राज ये है , बयान सबका है यारो कलम हमारी है ! डॉ.ब्रजेश शर्मा
गो राहे शौक पे जाना बहुत जरूरी है , सफर में साथ सुहाना बहुत जरूरी है ! नज़र में आपकी बेशक हों आसमान मगर , ज़मीं पे पांव जमाना बहुत ज़रूरी है ! मोहब्बतों का है हासिल फरेब , फिर भी तो , बज्मे अहबाब सजाना बहुत ज़रूरी है ! सफर की हद हो जब अपनी निगाह ज़द में , तो मंजिलों को बढ़ाना बहुत ज़रूरी है ! नसीहतों की जो पाबंदियाँ हैं गिर्द मेरे , अब उनसे आँख चुराना बहुत ज़रूरी है ! गर्दिशे जीस्त भुलाने के लिए ऐ यारो , ग़ज़ल का एक तराना बहुत ज़रूरी है ! डॉ. ब्रजेश शर्मा