हिन्दी कवि सम्मेलनों के प्रसिद्ध और लोकप्रिय कवि श्री सुरेन्द्र दुबे जी का आज फिर फ़ोन आया जयपुर से । मेरे मित्र हैं और उनका विकट आत्मीय आग्रह है की उनकी शीघ्र प्रकाश्य पत्रिका ,जो की "कवि सम्मेलन" के प्रति समर्पित है , के लिए लेख / कॉलम नियमित रूप से लिखूं । अब तो उनके आग्रह की टेलीफोनिक दस्तक इतनी नियमित हो गई है कि उसकी थाप सीधे दिल पर पड़ने लगी है । बकौल दुष्यंत कुमार जी .... " दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर , हर हथेली खून से तर और जियादा बेकरार !" और जब दिल के दरवाजे पर आकर कोई अपना मित्र आवाज दे तो भला कैसे और कितनी देर चुप रहा जा सकता है ? लेकिन मित्रवर अब मैं ये कैसे आपको समझाऊं कि " मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए '......... अब न तो कवि सम्मेलनों से वैसा सतत सम्पर्क रहा और न लेखन से । जिन्दगी आजकल जिस धारा में बह रही है उसमें कविता , कवि सम्मेलन , लेखन आदि सब नेपथ्य में चले गए हैं । " फुरसत ही नही इन हाथों को अब चाक गरेबां कौन करे " लेकिन बन्धुवर दुबे जी इन पंक्तियों को लिखते हुए ये प्रश्न जरूर उठ रहा है कि आख़िर ३०-
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